manisha sinha

Abstract

5.0  

manisha sinha

Abstract

सारथी

सारथी

1 min
564


रणभूमि सी तैयार है क्यों,

कयों मन कोलाहल से है भरा।

मृग तृष्णा से भटक रहे ,इस

मन को अब तू लगाम लगा।


मन का सारथी ,ऐसा है बनना

भटके ना वो उन्मुक्त हो और

ना पैरों में बेड़ियों सी जकड़न रहे।

द्वन्द के हर हाल में भी

राह सुकून की दिखती रहे।


जो आँख से ना दिख सके तो

ज्ञान चक्षु खोल दे।

वाणी की बाँध अब ना बना तू

कर्मों की नदियाँ खोल दे।


जो वक्त की ना पकड़ रखी

विलाप भी ना करने पाएगा।

तितर बितर सा बिखर कर तू फिर

पश्चाताप भी ना करने पाएगा।


रोक ले तू स्वार्थ के इस

रकत रंजित बाज़ुओं को।

पोंछ दे अब आँखों से भी

कुंठा के बहते आँसुओं को।


छवि हो एक ऐसी तुम्हारी

प्रभाव एसी बनी रहे।

दहाड़ सिंह की ना डिगा सके पर

मीठी वाणी मन को हराती रहे।


दो नाव की अब तू सैर ना कर

एक लक्ष्य और एक राह चुन।

जीत हो स्वयं पर ही स्वयं का

यही रणभूमि का लक्ष्य रहे

यही रणभूमि का लक्ष्य रहे।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract