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लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

Abstract

5.0  

लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

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सागर में विलीन

सागर में विलीन

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मैं नदी हूँ

पर्वत की चोटी से निकलती हूँ,

मैं कल कल कर बहती हूँ।

मैं आगे बढ़ती रहती हूँ,

कभी न मैं रुक सकती हूँ।


मैं नदी हूँ

सब जीवों की प्यास बुझाती,

मैं जीवन का वरदान हूँ देती,

मैं निरंतर चलती रहती,

कर्म में विश्वास मैं करती हूँ।

फल की अभिलाषा न रखती हूँ।


मैं नदी हूँ

जीवन से मैं ख़ुश रहती हूँ,

सबके काम मैं आती हूँ,

सबको ख़ुशियाँ भी देती हूँ,

मैं गंगा, जमुना, सरस्वती हूँ,


ब्रम्हपुत्र, नर्मदा, त्रिवेणी हूँ,

पहाड़ों में रेंग रेंग कर चलती हूँ,

मैदानों में सरपट भगती हूँ,

चट्टान व पर्वत रोकना चाहें

मैं चीर उन्हें आगे बढ़ती हूँ।


मैं नदी हूँ

मेरा होता पूजन अर्चन,

मुझको माँ भी कहते हैं,

मेरा सम्मान भी करते हैं,

मेरे तट पर बस्तियाँ भी बसती,


जो गाँव में बदलते रहते हैं,

पशु, पक्षी, मनुष्य, खेत खलिहान,

मैं सबकी प्यास बुझाती हूँ,

धरा हरा भरा कर उपजाऊँ करती हूँ,

अच्छाई व बुराई सहकर भी मैं,

लोगों का हित करती हूँ।


मैं नदी हूँ

किसान को रोजी रोटी देती हूँ,

वसुधैव कुटुम्बकम की है भावना,

मैं बहती ही रहती हूँ,

मुझसे ही विद्युत बन जाए,

जो देश में प्रकाश फैलाए,

सम्मान व देश की ख़ातिर,


सब कुछ न्यौछावर करती हूँ,

प्रभु को अर्पित की जाती हूँ,

बिल्कुल अभिमान न करती हूँ,

अंत में मैं बहते बहते

सागर में विलीन हो जाती हूँ।


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