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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Romance Classics Inspirational

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Romance Classics Inspirational

रूठी चांदनी

रूठी चांदनी

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🌙 रूठी चांदनी 🌙
🌹 श्रृंगार-रस प्रधान मुक्तक कविता 🌹
✍️ श्री हरि
🗓️ 3.11.2025

रूठी चांदनी आज फिर बादलों की ओट में सिसकती है,
मानो प्रिय की बाहों से छूटकर लाज में सिमटती है।
निशा की नथ पर ठहरी ओस की बूंदें —
जैसे अधरों पर अनकहा चुंबन रह गया हो,
अधूरी स्पर्श की कथा, हवा के संग बह गया हो।

नील नभ का हृदय धधकता है, पर वाणी मौन,
तारक सभी बन बैठे हैं साक्षी — इस प्रणय-क्रंदन के।
हर किरण में उसकी अंगकांति झिलमिलाती है,
हर शीतल स्पर्श में उसकी देह-गंध समाती है।

ओस की लटें जब धरती के केशों में उलझती हैं,
तो जैसे किसी यौवना के कुंतल चूमने को झुकती हैं।
वन के पल्लवों पर जब झरे उसके झिलमिल बिंदु,
तो लगता है — रजनी की देह पर बिखरे रजत चंदन छंदु।

चाँद भी बेचैन है — मानो अनुरागी प्रियतम,
जो देखे बिना अपने प्रेयसी का न रह पाए एक क्षण।
उसका मुख म्लान, उसकी ललाट शीत से भी श्वेत,
कहता — “आ जा प्रिये, तेरा वियोग आज सहना न हेत।”

वह मुस्काती है — पर आधे अधर ही खिलते हैं,
बाकी अधर किसी स्मृति के अधर से मिलते हैं।
उसकी लाज के आवरण में शीतल अग्नि जलती है,
उसकी आँखों में प्रणय-धारा, पर दृष्टि पलकों तले ढलती है।

रात के पथ पर जब वह उतरती है —
धरती का हर फूल उसकी देह से सुवासित हो जाता है।
हर पवन का झोंका उसके आँचल से खेलता,
हर तरंग उसे छूकर श्रृंगार का गान कहता।

रूठी नहीं है वह — बस लजीली है,
प्रेम की मर्यादा में बंधी हुई सजीली है।
हर रात जब वह बादलों से झांकती है —
तो लगता है, मानो स्वर्ग से कोई अप्सरा
प्रियतम की प्रतीक्षा में अधरों पर आहट रख
धरती पर उतरने को आतुर हो…
पर स्वयं की लाज में फिर छिप जाती है। 🌕



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