रूह-ए-जुस्तजू
रूह-ए-जुस्तजू
रूह-ए-जुस्तजू माफ़िक अदम के पाक होती है।
गर्द होती नहीं रूहें बदन ये खाक होती है।
अत्फ़ की ताकतों से जब कभी बाँधा गया इसको,
वक़्त की चाल पर यह हाथ से इज़्लाक होती है।
अऱज़ से अर्श तक इसकी बड़ी ही नाप है मुश्किल,
नफ़्स की खुद बनावट ही महज़ असबाक होती है।
अब्द बनकर रहे अमलन यही इक आख़िरी ख्वाहिश,
देख कब तक अदम सी रूह पर असफ़ाक होती है।
बंदिशे क्या लगाओगे ज़रा इतना बताओ तुम,
रूह-ए-जुस्तजू आवारगी बेबाक होती है।
नफ़्स ग़मनाक होकर भी यहाँ अमलन कही जाती,
शौक़-ए-जुस्तजू इस रूह की आफ़ाक होती है।