“रोटी की ऑनलाइन कथा”
“रोटी की ऑनलाइन कथा”
मैडम,
आपका संदेश मिला,
आपने ऑनलाइन आने को कहा है,
मेरे बच्चे को….
एक बार नहीं,
दो बार….
तीन बार….
पर यह एक गरीब का बच्चा है मैडम!
गरीब के बच्चे को बचपन कहाँ होता है?
वह तो अकाल प्रौढ़त्व की मशक
में बहते हुए जीता है….
हमारे बच्चे जनम से पहले ही
मज़दूर बन जाते हैं,
और जब जनमते हैं…..
तो गरीबी के थिगड़ ढकने नहीं देते
आबरू…..
दरिद्रता की गहरी खाई में,
उनकी ख़ुशियों की चिंदियाँ उड़ती हैं….
दाने दाने को मोहताज
उनके पेट की गोल लकीरें होती हैं….
इस ग़रीबी के चक्रव्यूह में,
कभी तन भर कपड़ा नहीं….
कभी पेट भर अनाज नहीं….
अरे! हमारी औक़ात नहीं!
महज़ एक कॉइनबॉक्स बटोरने की
इंडियन डिजीटाईजन का
स्मार्टफ़ोन कहाँ से लाऊँ??
मैं जानता हूँ
मेरे अधिकार
मुझे मिलने चाहिए!
इसलिए तो दो हाथ करता रहता हूँ
अपने हालात से…
आप सिखा लो!
अपने अमीरज़ादों को ….
रसोई में छिपा विज्ञान….
सोशल मीडिया पर जाकर…
हमारे बच्चों के तो सारे विषय,
घूमते हैं…
रोटी के गोले के चारों ओर..
रेंगते है वहाँ,
उनकी भूख के…
व्याकुल अवशेष…..
कभी- कभी सोचता हूँ…
यह ग़रीबी लड़ना सिखाती है..
धैर्य देती है…
ज़िद्दी बनाती है….
पर….
सच कहूँ….
ये बातें निबंध की स्पर्धाओं में
ही अच्छी लगती हैं..
आप न करें!
मेरे बच्चे की ऑनलाइन शिक्षा की जल्दबाज़ी….
आज-कल मैं ही पढ़ा रहा हूँ उसे ऑफ़लाइन….
हालात का गणित…..
हाँ!
अगर कुछ देना ही है तो…..!!!
बेहतर होगा कि,
मध्याह्न भोजन वाला चावल!
तनिक थाली भर….
ज़्यादा दे दें..
इस अंधेर नगरी में
दो जून पेट तो भरा रहेगा….
आप ही बताइए!
मेरा बच्चा…
स्मार्टफ़ोन किस चटनी के साथ खाएगा????