” रंजन “
” रंजन “
वो कलम से अल्फाज़ लिखता है
कागज़ पर दिल के राज़ लिखता है ।
पढ़ उसे जो भी लेता है
वह भी दर्द ए बयां करता है ।
सिर्फ कलम और कागज़ तक
सीमित नहीं रहे अब उसके बोल ।
वह तो फैल गए हैं
इस दुनिया में चारों ओर ।
कवि, लेखक या शायर नहीं है वो
वह तो सिर्फ सुकुन के लिए लिखता है ।
वाह-वाही करने वाले बहुत मिले ‘रंजन’
लेकिन वह तो अकेला ही अब मस्तमौला है ।
वह अपनों पे खर्चा करता है
वह अपनों की चर्चा करता है ।
उसके कंधे हैं झुकें हुए
उसके सपने है रूकें हुए ।
वह अंदर से कितना टूटा है ।
सबने उसको बहुत लूटा है ।
उसने धैर्य अभी तक नहीं खोया है
उसने फिर सपनों को संजोया है ।
वह चलता है प्रगतिपथ पर
वह रूकता नहीं अब किसी व्यर्थ रथ पर ।
वह कहलाता निठल्ला है
पर मां-बाप का लल्ला है ।
कितने उसने ताने सुने हैं
कितने उसने आंसू गिने हैं ।
मगर हिसाब रखता है कौन
लोगों को दिखता है अब वह मौन ।
वह चलता रहता है अब प्रगतिपथ पर
गिरता और संभलता रहता है प्रगतिपथ पर ।
उसकी तलाश जारी है अब भी
उसका प्रयास जारी हैं अब भी ।
वह विजय रथ लिए निकला है
वह अपने प्रगतिपथ पर निकला है ।
