#RangBarse
रँग बरसे होली का ,
भीगी चुनरी गोरी की ,
फाल्गुन मास की ठिठोली ,
समझे ना वो भोली थी |
मैं मौका कैसे जाने देता ?
उसको पकड़ रँग लगाया ,
वो शर्मा के जब दूर गई ,
बाहों में भर तब गले लगाया |
रँग - बिरंगे गालों पर ,
माथे की लटें झूम रहीं ,
मेरे अंदर की कामनायें ,
उसके अधरों को चूम रहीं |
गदराये से उसके बदन को ,
जब अपनी बाहों में भरा ,
उसके कसे वक्षों को छूकर ,
एक नशीला सा जादू चढ़ा |
थोड़ा रँग और गुलाल लगा ,
मैने छोड़ दिया उस मतवाली को ,
रँग बरसा फिर मेरे जीवन में ,
जब बन बैठी मेरी घरवाली वो ||