रिश्तों की केंचुल
रिश्तों की केंचुल


इंसानों की भी केंचुल ना देखा ना सुना था,
हर रिश्ता भी अपना तो खुद ही चुना था,
बुन रखे थे ख्वाब वादों के रेशमी धागों मे,
पिरोए जिनसे एहसास यादों के भागों में।
संजोया हर वो रिश्ता एक दूजे से जुदा था,
मानो गर यकीं तो हर रिश्ता मेरा खुदा था,
रिश्तों की सरोकारी में कुछ यूं गुमशुदा था,
भूलना था खुद को मुझे ये तो तयशुदा था।
कहता था जिनको अपना होते अब पराये,
फितरत उनकी बदली उनको कैसे बताएं,
अगर वो आवाज दें तो कैसे हम ना जाएं,
दिल का दुखड़ा बोलो ना हम किसे बताएं।
मां बेटे से औ बेटा मां से भी रहना चाहे दूर,
यह मर्ज कैसा जिसका छाया हर शै फितूर,
हुआ कुछ यूं, ना दोष उनका ना मेरा कसूर,
ये वक्त ही है यार ऐसा, सब इसी का सुरूर।
ना पता था पर हुआ था कुछ मुझे जरूर,
हो गया था मैं जुदा तुझसे थोड़ा होके दूर,
है गुजारिश तुझसे अब टूटा मेरा वो गुरूर,
इल्तिज़ा है कर दे त़ारी सब पे अपना नूर।
छोड़ी केंचुल रिश्तो की तो मैं आजाद हुआ,
पहचान के सच को यारों फिर आबाद हुआ,
मेरे रिश्ते तो उससे थे जिसने जन्नत बख्शी,
हर रिश्ते में बस वो था उसकी थी ये मर्जी।