रिश्तों का तमाचा
रिश्तों का तमाचा
मार दिया होता अगर वक्त रहते खुद को तमाचा।
तो शायद न होता ज़िंदगी भर का ये तमाशा।
यूं ही फरियाद करते रहे ताउम्र उस रब से बेतहाशा।
कुछ खुद से भी तो किया होता कोई वादा।
ज़िंदगी में ठोकरें यूं ही नहीं खाई हैं जनाब।
ये तो मेरा खुद से खुद को ही लगा है तमाचा।
काश कि हम संभल गए होते कुछ निभाने में।
निभाते निभाते सब बदल तो गए हैं जरा सा।
काश कि हम भी हेरफेर जाते जरा सा।
तो शायद न पड़ता आज जिंदगी में रिश्तों का तमाचा।
फितरत भी हमारी हम बदल न पाए तमाम उम्र।
और फिर खाते रहे तमाचे पे तमाचा।
आज तक समझा नहीं पाए खुद को जिंदगी का ये हिसाब।
और हो गए बेहया, मजबूर थे देखते रहे रिश्तों का तमाशा।
अपने, अपने भी न बन पाए हजार कोशिशों के बाद।
वो करते रहे अनाचार, और हम सहते गए उनका तमाचा।