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Purushottam Das

Tragedy

4  

Purushottam Das

Tragedy

रिक्तताएं

रिक्तताएं

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341


तुमसे कई मुलाकातें अक्सर की राह चलते की

टुकड़ों में ही सही बातें रोज की थी अपनी तुम्हारी

तुम्हारे लिए बेहद सामान्य रहा होगा ये सब

मेरे लिए भी इसके कोई खास मायने नहीं रखे थे


रोज की ये भेंट तुमसे बिना कोई छाप छोड़ती 

यूं ही बिसर जाती आधी कही आधी सुनी बातें

ऐसा भी नहीं हुआ कि तुमने कुछ दिया हमको

न ही मैंने तुम्हें कुछ देने की ख्वाहिश रखी कभी


लेकिन आज जो तुम चले गए हो पहाड़ सी रिक्तताएँ देकर

मुलाकातों का सिलसिला नहीं दोहराने का पक्का वादा निभाकर

इन रिक्तताओं का क्या करूँ मैं इस शून्य को कैसे भरूँ मैं

तुमसे पूरी बात कैसे कहूँ मैं तुम्हारी पूरी कैसे सुनूँ मैं


सच कहूँ अब जब तुम नहीं हो बहुत कुछ नहीं बदला

पर तुम्हारी कमी खली है जो स्थायी रह जाने वाली है

रोशनी में डूबे घर का एक कोना स्याह पड़ गया है

राह भी है सफर भी है कोई हमसफ़र है जो छूट चला है



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