मुहब्बत की गली में
मुहब्बत की गली में
उम्र ही कुछ ऐसी थी
कि मन पर इख्तियार था
अपने आखों में नींद न थी
उनके आंखों में इकरार न था
रफ्ता रफ़्ता फिर भी उनके ओर चली मैं
बढ़ गये अपने कदम मुहब्बत की गली में
आरज़ूए मन रब से हरदम अर्ज किया
उनके हर अदा एक सुकून दर्ज किया
नूर बन गए वो नूरानी स्वप्न की
बढते गये कदम आहिस्ता आहिस्ता
लगने लगे हमें वो फरिश्ता
उनकी चाहत में जुगनू सी पल पल जली मैं
बढ़ गये अपने कदम मुहब्बत की गली में।
