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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

Classics

रामायण ६२; काकभुशुण्डि आत्मकथा

रामायण ६२; काकभुशुण्डि आत्मकथा

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जब जब रामचंद्र शरीर धरें 

अयोध्यापुरी में वो आते हैं

पांच वर्ष तक मैं भी साथ रहूँ 

बाल चरित्र मुझे भाते हैं।


आज तुम्हे एक कथा सुनाऊँ 

खेल रहा था संग राम के 

पास जाऊं तो हंसने लगें वो 

दूर जाऊं तो वो रोते थे।


मुझको पुआ दिखा, बुलाते 

संदेह हुआ मुझे लीला देखकर 

माया ने मुझे घेर लिया था 

उसी के वश में था मैं मूर्ख।


भ्रम में चकित देखा राम ने 

मुझे पकड़ना चाहें वो 

मैं भागूं उनसे दूर और 

घुटनों बल चलके आएं वो।


भुजा फैलाई पकड़ने को मुझे 

मैं आकाश में दूर उडा 

भुजा भी मेरे पीछे पीछे 

मैं आश्चर्य चकित बड़ा।


ब्रह्मलोक तक मैं चला गया 

पीछे मुड कर देखा जो 

एक अंगुल पर भुजा राम की 

मेरा पीछा न छोड़े वो।


सभी आवरणों को भेद कर 

जहाँ तक गति मेरी, गया 

व्याकुल हुआ मैं ये देखकर 

भुजा ने मेरा पीछा किया।


भयभीत हुआ जब मैं बहुत तो 

आँख मूँद ली मैंने वहां 

आँख खोलकर जब देखा तो 

अवधपुरी में पहुँच गया।


मुझे देख हंस पड़े राम जी 

मैं गया मुख में उनके 

पेट में पहुँच, ब्रह्माण्ड समूह दिखे 

अनेकों लोक वहां जिनके।


करोड़ों ब्रह्मा, करोड़ों शिवजी 

अनगिनत तारागण हैं 

सूर्य चन्द्रमाँ भी अनगिनत 

असंख्य समुन्दर और वन हैं।


देवता, मुनि, मनुष्य असंख्य 

जड़ और चेतन जीव देखे 

जिसकी कल्पना भी न कर सकें 

सृष्टि के खेल अजीब देखे।


अपने आप को भी देखा वहां 

अवध पूरी, सरयू भी वहां 

दो घडी में देखा ये सब कुछ 

थक कर मैं पड़ गया वहां।


मुझे व्याकुल देख हसें प्रभु 

मैं मुँह से बाहर निकल आया 

मेरे साथ लड़कपन करें प्रभु 

खेलें खेल, रचें माया।


मैं समझाता अपने मन को 

शांति मैं न पाऊं पर 

प्रेम विह्वल देखा मुझे तो 

हाथ रखा मेरे सर पर।


रोक लिया अपनी माया को 

मेरे दुःख का नाश किया 

मैंने जब उनकी बहुत स्तुति की 

मुझे वर मांगने को कहा।


मैंने मांगी अविरल भक्ति 

उन्होंने कृपा मुझ पर कर दी 

ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, लीलाएं 

मेरे मस्तक में भर दीं।


कहें सेवक हैं प्राण समान मुझे 

पिता को वो पुत्र जैसे 

मन, कर्म, वचन से पिता को माने 

अज्ञानी भी चाहे हो वैसे।


कपट छोड़ जो भजे मुझे है 

वही परमप्रिय मुझको 

मुझे समझाकर ये फिर से 

खेलें बालक के जैसे वो।


कुछ समय रहा अवधपुरी में 

बाल लीला देखीं वहां 

आश्रम में फिर लौट आया मैं 

करूँ प्रभु का भजन यहाँ।


भजन बिना जनम मृत्यु के 

भय का होता नहीं है नाश 

राम की महिमा अथाह समुन्द्र 

इसका थाह ना किसी के पास।


भुशुण्डि वचन सुन हर्षित हो 

गरुड़ ने किया प्रभु का ध्यान 

मोह नाश हो गया था उनका 

मन निर्मल हुआ, मिल गया ज्ञान।


भुशुण्डि से उन्होंने पूछा 

काक शरीर किस कारण पाया 

आपका प्रलय मैं भी न नाश हो 

शिवशंकर ने ये था बताया।


काल ना व्यापे है आपको

और सभी कुछ हर लेता जो 

कहिये क्या कारण है इसका 

सुनना चाहूँ कथा मैं सब वो।


काकभुशुण्डि बोले गरुड़ से 

इसी शरीर में भक्ति पाई 

राम कृपा है इसी शरीर पर 

ममता अधिक इसीलिए भाई।


मेरी इच्छा पर मरण है मेरा 

शरीर को छोड़ना मैं ना चाहूँ 

मुझे याद है बहुत जन्म की 

कुछ की तुमको कथा सुनाऊँ।


 

















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