राखी उस घर से
राखी उस घर से
,सुबह हुई, क्यों अन्दर कुछ अनमना सा लगा,
और क्यों वो आँगन अब भागा-भागा सा लगा
ना माँ की पुकार, ना पापा की आवाज
ना वो बालकनी, ना भाई की हँसी का साज़
सोचा कंघी कर लूं, पर जल्दी नहीं थी
अब मिठाई छुपाने की टेंशन नहीं थी
यह घर भी मेरा अपना है, मानती हूँ मैं
पर कुछ कोनों से आज भी अनजान हूं मैं
राखी बाँधने को यह मेरे हाथ तैयार हैं,
पर वो कलाई न जाने कितने मील पार है
अब तो डिब्बे में बंद है धागों के साथ
मेरे सलोने बचपन की हर एक सौगात
मिस्टर बोले, "वीडियो कॉल कर लो"
पर दिल की भीगी परतें पड़ न पाए वो
कैसे कहती यह रसम नहीं एक अहसास है
हर साल जो दिल को थोड़ा लाता पास है
"भाई, याद है न? तू चोटी खींचता था,
मेरे हिस्से का रसगुल्ला चटक जाता था"
आज वो लड़ाई भी कितनी प्यारी लगे
काश! एक दिन के लिए फिर वही घर जगे
यहाँ सब अच्छा है, मैं खुश हूँ सच में
पर मायके की यादें छुपी हैं नयन में
कहते हैं, बेटी अपनी नहीं पराई होती है
पर उसके दिल की विदाई कहां पूरी तरह होती है
दिल के एक खास कोने में माइका बसा रहता है
जहां मां बाप, भाई बहनों का साज़ बजा रहता है
राखी के दिन जब भाई दरवाज़े पर नहीं आता है
दिल कहीं डूब जाता है,अंदर ही अंदर रो देता है
बस फिर मैं तो खिड़की के पास बैठ जाती हूँ
ख्यालों में भाई की कलाई पर राखी बाँध लेती हूँ
और आसमान को देख,
बस यही कहती हूँ—
"ये डोर अभी भी ज़िंदा है,
तू दूर सही, पर मेरा अपना है।".. .
