राहें
राहें
राहों से राहें जोड़ती चली गयी,
कदमो की आहट मैं सुनते चली गयी !
मंजिलों को मैं सदा मोड़ते चली गयी,
कुछ कहते चली गयी कुछ सुनते चली गयी !
इन वीरानियों में सदा महफ़िल सजाते चली गयी,
कहते हैं कागज के फूलों से खुशबू नहीं आती,
मैं कागज के फूलों में भी
खुशबुओं को भरती चली गयी !
उन फूलों से महकाऊँ
जहाँ-जहाँ से मैंं बनाऊँ कारवाँ !
उन कारवों से बनाऊँ मैं ऐसी महफ़िल कि
उन महफ़िलों में आये जन्नत की रौनक !
इस जन्नत की रौनक को
सारे जहाँ में फैलाकर,
इस सारे जहाँ को मैं जन्नत बनाऊँ !
सदा सुनती रहूँ अपने मन की आवाज,
उस आवाज को मैं
एक नया आगाज बनाऊँ !
