"पुस्तक"
"पुस्तक"
कभी-कभी
जब तुम
बैठी होती हो
मेरे सामने...
चाहता हूँ मैं
तुम्हें पढ़ना
एक पुस्तक की तरह
जाने क्यों
नहीं खुलते
उस पुस्तक के पन्ने
एक साधारण किताब ज्यों
बरक दर बरक...
कभी तुम्हारी मुस्कुराहट
ले जाती है
किसी एक पृष्ठ पर
तो कभी
तुम्हारी उदासी
किसी अन्य पृष्ठ पर
कभी तुम्हारी हैरान आँखों में
तैरते हुए
आ जाते हैं
कुछ सुनहरे-रूपहले
माज़ी के हरफ़
कभी अचानक
छलक कर कोई आँसू
ले जाता है
किसी धुंधलाए स्याह पन्ने की इबारत पर
और यूँ
बेतरतीबी से
पलटे जा रहे पन्नों पर
चाह कर भी मैं
पढ़ नहीं पाता
वो पन्ना
पन्ना...
जिस पर लिखा हुआ हूँ मैं
और जिसे
छुपा लिया है तुमने
बड़ी चतुराई से
और मैं
बड़े धैर्य के साथ
पढ़ता जा रहा हूँ
हर पन्ना
बस तुम बैठी रहो
यूँ ही
पुस्तक बनी
मेरे सामने...