पुरुष/स्त्री
पुरुष/स्त्री
पुरुष यानी घर,
ठीक उसी तरह
जैसे एक स्त्री आँगन।
ऐसा नहीं कि स्त्री ने
बाह्य संघर्ष नहीं किया,
पति की सुरक्षा नहीं की,
परन्तु,
पुरुष शरीर से शक्तिशाली था,
मन की कमजोरियों को,
उसने आंखों से बहने नहीं दिया,
तार तार होकर भी,
वह बना रहा ढाल,
ताकि स्त्री बनी रहे अन्नपूर्णा।
पुरुष ने मिट्टी का दीया बनाया,
कि स्त्री भर सके उसमें रौशनी,
अंधेरे से लड़ सके ...!
किसी भी बात की अति,
व्यक्ति को अत्याचारी
या निरीह बनाती है,
और वही होने लगा।
पुरुष आक्रामक हो उठा,
स्त्री असहाय,
जबकि दोनों के भीतर रही
जीवनदायिनी शक्ति,
दोनों थे पूरक,
लेकिन दोनों
स्वयंसिद्धा बन गए,
एक दूसरे को नकार दिया,
भविष्य का पुरुष,
भविष्य की स्त्री,
दोनों उग्र हो उठे,
परिवार, समाज से अलग
उनका एकल वर्चस्व हो,
इस कल्पनातीत इच्छा के आगे,
उनकी अद्भुत क्षमताएँ
क्षीण होने लगीं।
प्रेम दोनों के आगे
फूट फूटकर रो उठा,
घर का कोना कोना
सिहर कर पूछने लगा,
कहाँ गया वह पुरुष
और वह स्त्री,
जिनसे मेरा वजूद था,
बचपन की मासूमियत थी,
बिना किसी तर्क के
पर्व-त्योहार थे,
मेजबान और मेहमान थे ...
अब तो एक ही सवाल है,
इतना सन्नाटा क्यों है भाई,
या फिर है खीझ,
"ये कौन शोर कर रहा है" !!!