पतझड़
पतझड़


जो ना पाया था मैंने तो कभी
डरता हूँ खोने को क्यूँ फिर वही
ज़िंदा तो हूँ मैं मगर क्यूँ
मरता हूँ जीने को मैं अभी
तू है नहीं मेरी ज़िंदगी में
मगर फिर भी मेरी जान है तू
परिंदों सा उड़ जाता हूँ मैं कहीं
तेरे दर पे ही क्यूँ उतरा हूँ
तोहफ़ा माना है तेरे इस ग़म को भी
मैं प्यार जो तुझ से करता हूँ
तू है नहीं मेरी ज़िंदगी में
मगर फिर भी मेरी जान है तू
रोना ना तू पूरा पतझड़
याद में गुज़रे बहारों की