पति का बटुआ
पति का बटुआ
पति के बटुवा के लिए पत्नी थी बेचैन
कब लग जाये हाथ में गड़ा रखी थी नैन
गड़ा रखी थी नैन मगर नहीं दाल गल रही
कब झटके दस पाँच पति को पता चले नहीं।
कहता है आज़ाद मटक कर आई चलके
झटक लिए दस पांच मिले जब बटुवा पति के
रोज रोज दस पाँच से बन गए एक हजार
भनक लगी न पति को न इसकी दरकार।
न इसकी दरकार मगर इक आफत आई
पति भया लाचार जेब नहीं एकौ पाई
कहता है आज़ाद पति मन कर रहा खोज
कैसे चलेगा खर्च गृहस्थी का अब रोज।
पत्नी बोली चिन्तिये नहिं तिनकौ पतिदेव
देती हूं मैं रुपये यदि दुगना तुम देव
यदि दुगना तुम देव रुपये मैं ले आई
मगर तुम्हे लौटाना होगा पाई पाई।
कहता है आज़ाद सुनी हाँ पति की बोली
खोल दियो सब राज विहंसि कर पत्नी बोली।
