प्रतिमाएं भी बोलती है
प्रतिमाएं भी बोलती है
आज जब खुद को खड़ा पाया
उस विशाल प्रतिमा के आगे
नाम था जिनका वल्लभ भाई
पटेल लगता था नाम के आगे
नतमस्तक मैं खड़ी थी
लोह पुरुष के सामने
अचानक से यूँ लगा कोई
अदृश्य शक्ति लगी हो बोलने
धीमी धीमी आवाज़ में बोली
"क्या ढूंढ़ रही हो तुम मुझमें
सिर्फ निर्जीव मेरी प्रतिमा है यह
जग को छोड़ चुका हूँ कबसे
ख़ूब संगर्ष से मैं लड़ा था
भारत के एकीकरण के लिए
औद्योगिक विकास, उदार सरकार
जी रहा था यह सपना लिए
आत्मनिर्भर होना ज़रूरी था
देश में उत्पादन बढ़ाना था
पर आचार नीति दांव पर हो
यह न मैने कभी सोचा था
वे कह रहे सीना ताने
देश खूब तरक्की कर रहा है
मैं भी कहाँ इसको नकारता हूँ
फिर आम आदमी क्यों मर रहा है
अनैतिकता के मुखौटे पहने
क्यों चाल स्वार्थ की प्रचलित है
ऐसे देश की व्यथा देखकर
मन मेरा बड़ा विचलित है
गरीब भूख से मर रहा है
सिर्फ पूंजीवादी पनप रहा है
यह कौन सा दीमक है तरक्की का
जो देश की जड़ें हिला रहा है
देश की पूंजी यूं बहा कर
मेरी प्रतिमा यहां खड़ी करी
वे सोच रहे मुझे सम्मानित किया
पर मैं जोड़ रहा हूँ कड़ी से कड़ी
प्रतिमाएं भूख नही मिटाती
रोशनी घरों में नही है लाती
प्रतिमाएं भी बोलती है
पर आवाज़ उनकी न सुनाई देती
मेरा पैगाम उन तक पहुंचा दो
पूंजीवादी नही, यह आम जनता है
भरोसा जिसने तुम पर किया
तुम्हें मसीहा जो मानता है
सही जगह निवेश ही
देश का उत्पादन बढ़ाता है
घर वीरान न रहते हैं
भूखे की भूख मिटाता है
उत्पादन व सही निवेश
यह दो मज़बूत हाथ है
कोई बाधा बाधक नही बनती
जब तक इन दोनों का साथ हो
बदल दो अपना रण नीति
ढूंढ़ो विकल्प, देश खोखला हो गया है
आम आदमी की उलझने सुलझाओ
पस्त है वह, बोखला गया है"
यह कहते ही अदृश्य आवाज़
हवा में न जाने कहाँ खो गई
चुप थी में, आम आदमी की तरह
लोह पुरुष की वाणी में खोई हुई।