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Krishan Sambharwal

Abstract

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Krishan Sambharwal

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प्रकृति

प्रकृति

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है यही प्रकृति का सार...


तुम चाहे जितना जोर लगा लो

बुद्धि के घोड़े दौड़ा लो

ये भी वो भी सब कुछ चाह लो

वही करेगी निर्णय की तुम्हे एक मिले या चार

है यही प्रकृति का सार


तुमसे पहले कितने आए एक से एक धुरंधर थे

सब राज्यों पर राज था जिनका राजा एक सिकंदर थे

बस मेरा हो नाम जगत में २व्याल ये उनके अंदर थे

एक चली ना उनकी भी जब पड़ी वक्त की मार

है यही प्रकृति का सार


कोई काला कोई गौरा है तो कोई ऊंचा कोई नाटा

कोई मांगता भीख सड़क पर कोई है बिडला-टाटा

मन सच्चा तो लाभ मिलेगा गलत नियत से घाटा

जिसको जैसा मिलता है वो सब कर्मों का भार

है यही प्रकृति का सार


कालचक्र का खेल अनोखा कोई समझ नही पाया

कोई संंभल जाए गिरकर भी कोई उड़ता जमीं पर आया

कुछ टूटे-फूटे छंद जोड़ इस अनपढ़ ने समझाया

अपने कर्म करे जा तू फिर कभी नहीं हो हार

है यही प्रकृति का सार।


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