STORYMIRROR

Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

4  

Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

प्रकृति की ऑंखें

प्रकृति की ऑंखें

1 min
325

प्रकृति का सौंदर्य तो बहुत अनुपम है

देखने के लिये चाहियेऑंखें उत्तम है


आजऑंखें जुगनू को सूरज मान बैठी है

बिजली के बल्बों को वो तारे मान बैठी है


उन आँखों को प्रकृति का सौंदर्य कैसे दिखेगा,

जोऑंखें बस कृतिमता का वहम पाल बैठी है


न दिखेगी उन्हें सूरज की लाली

न दिखेगी उन्हें संध्या की बाली


उन्हें दिखेगी कृतिम रंगों की जाली

वो बनावट को अपना मान बैठी है


ये बनावटी जिंदगी तो साखी एक भ्रम है

प्रकृति के बग़ैर न होंगे कभी खुश हम है


देख प्रकृति को ध्यान से मेरी आँखें,

बनावटी चीजो को फेंक दे बीच रास्ते


तू 60 क्या 100 साल फिर से जियेगा साखी

तू बस प्रकृति को सदा ही बांधता रहना राखी


देख संसार को प्रकृति की आँखों से

खत्म होगा तेरा जो भी गम है बाकी



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract