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Atal Painuly

Abstract

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Atal Painuly

Abstract

प्रकृति का रक्षण ।

प्रकृति का रक्षण ।

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कब तक चुप रहकर सब सहतें रहोगें ,

कब तब मौन को ओढ़ें बैठे रहोगें , 

कब तक अपने मुख को मोडे रखोगों ,

आखिर कब तक चुप रहोगें ।


कब तक आँखों की अश्रुधारा ले ,

छुपतें रहोगें जग से तुम ।

आखिर कब तक जाति- धर्म के टुकड़ों में, 

बांटते रहोगें जग में तुम ।


अब तो साथ आ जाओ ,

जग पर आयी कैसी यह भीषण आपदा ।

देखों कैसें जग पर ,

टुट पड़ी है यह विपदा ।


अब तो याद करो मानवता के धर्म को ,

कब तक सिमटतें रहोगे अलग-अलग कर्म पर ।


आखिर कब कुछ दानवों के कर्म को ,

मानव कैसे सह सकता है ,

कैसे प्रकृति के पतन से विमुख होकर ,

 चुप कैसे रह सकता है ।


मानव का क्या धर्म यहीं ,

करना केवल प्रकृति का भक्षण ।

या 

सोच सके कोई ऐसा की ,

करना हमको रक्षण है ।



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