प्रकृति का रक्षण ।
प्रकृति का रक्षण ।
कब तक चुप रहकर सब सहतें रहोगें ,
कब तब मौन को ओढ़ें बैठे रहोगें ,
कब तक अपने मुख को मोडे रखोगों ,
आखिर कब तक चुप रहोगें ।
कब तक आँखों की अश्रुधारा ले ,
छुपतें रहोगें जग से तुम ।
आखिर कब तक जाति- धर्म के टुकड़ों में,
बांटते रहोगें जग में तुम ।
अब तो साथ आ जाओ ,
जग पर आयी कैसी यह भीषण आपदा ।
देखों कैसें जग पर ,
टुट पड़ी है यह विपदा ।
अब तो याद करो मानवता के धर्म को ,
कब तक सिमटतें रहोगे अलग-अलग कर्म पर ।
आखिर कब कुछ दानवों के कर्म को ,
मानव कैसे सह सकता है ,
कैसे प्रकृति के पतन से विमुख होकर ,
चुप कैसे रह सकता है ।
मानव का क्या धर्म यहीं ,
करना केवल प्रकृति का भक्षण ।
या
सोच सके कोई ऐसा की ,
करना हमको रक्षण है ।
