राजधानी का दंश ।
राजधानी का दंश ।
राजधानी,
गैरसैंण तू क्यों रानी बनना चाहती है ,
क्या तू भी यह सब सहना चाहती हैं ,
क्या तू सहना चाहती है
प्रदूषण के संताप को ,
या झेलना चाहती है विषताप को ,
या देखना चाहती है विकास के प्रताप को ।
यहाँ हर तरफ़ है अंधियारा ,
मैं सब सहती रहती हूँ ,
जिस गम़ को तुम सहती हो ,
वो तो है बस क्षणभंगुर ,
वैसे यहाँ हर तरफ फैला है उजियार,
बस ह्रदयों में बसता है अंधियार ।
तुम इतना सब कैसे सहती रहती हो ,
राजधानी,
बताओ कैसे चुपचाप सहती रहती हो ।
हर तरफ मानवों ने कर दिया है मेरा दमन ,
मानवों ही मानवों में होता रहता है भीषाण रण,
तुम ही बताओ क्या रोक सकती हूँ मैं ये भीषण रण,
या रोक सकती हूँ मैं होता अपना ही पतन ।
हर तरफ प्रलाप तो सब सह रहें है ,
मेरे आंचल में सब रह रहें है ।
गैरसैंण,
क्या तुम सुनना चाहती हो मानवों के शोर को ,
या ,मिलना चाहती हो पहाडों पर उड़ते मोर को ।
क्या तुम भी सहना चाहती हो इस प्रलाप को ,
या, गढ़ना चाहती हो अपने अनमोल प्रताप को ।
क्या तुम भी देखना चाहती हो बहते इस अशुद्ध नीऱ को ,
या, गोद में पालना चाहती हो एक अद्भुत वीर को ।
तन तो कहता कि,
चुपचाप सह लेता ये सारा संताप ।
पर,मन कहता कि,
लिख डाल मानव का ये सारा प्रताप ।
आखिर कैसे मैं अपने मन में सब सहता रहता ,
इतने प्रचण्ड अपमान को देख आखिर चुप कैसे रहता ।
आखिर मेरे पूर्वजों ने भी दी थी कुर्बानी,
उनकी गाथाओं को सुनता था मुंह-जुबानी ।
आखिर पुरखों के सपनें को कैसे टुटने देता मैं ,
अपने तन -मन को आपस में कैसे रूठने देता मैं ।।
गैरसैंण, क्या तुम तैयार हो
क्या तुम अब भी तैयार हो ।
(यह कविता मेंरे मन में तब पैदा हुई जब मैं पढ़ाई के लिए देहरादून आया तो मैने वहाँ देखा उसी को मैंने कविता के शब्दों के रूप मे लिखा है , आप एक विकसित शहर और किसी पर्वतीय आंचल को भी विकास की दौड़ की दौड़ में लाकर उस पहाड़ को अपना निर्मल जल ,जंगल, स्वच्छता से हाथ धोना पड़गा और उसी पर आधारित रचना ।)
