"राखी का त्यौहार "अटल पैन्यूली उत्तराखंडी
"राखी का त्यौहार "अटल पैन्यूली उत्तराखंडी
कविता- राखी की कहानी।
राखी का त्यौहार आया,
खुशियाँ भर-भर कर लाया।
त्यौहारों का देश हमारा,
आपस में प्रेम बढ़ाने को
बस त्यौहारों का ही तो सहारा।
कथा है इसकी सुहानी,
बनी थी द्रौपदी भातृ दीवानी।
श्री कृष्ण को भ्राता उसनें चुना,
अनमोल सम्बध उसने बुना।
प्रथम बार प्रभू से उसनें,
रक्षा का वचन पाया।
आकाश से उतरकर,
बैकुठ़ भू पर आया।
द्रौपदी जब घिरी कौरव सभा में,
पांडव थे मूढ़- व्याकुल उस सभा में।
कौरवों का काल सभा में तब फिर रहा था,
द्रौपदी का मन उन हवाओं से डर रहा था।
द्रौपदी ने पुकारा अपने सहारें घनश्याम को,
बचा लो! बचा लो! भरत वंश के गौरव मान को।
आखिर सभा में सब मौन ही थे,
सब अपने थे तो पराये कौन थे।
तब द्रौपदी ने अपने भ्राता को पुकारा,
क्योंकि बचे थे वही अंतिम सहारा।
कृष्ण को अपने वचन का ध्यान था,
द्रौपदी का भी तो कुछ गौरव-मान था।
तब कृष्ण ने लीला रचाई शान से
खड़े थे कौरव सभी अभिमान से।
क्षण में ही किया गोविंद ने उनका अभिमान भंग,
द्रौपदी ने पाया हरि को अपने संग।
यही तो कहानी है प्रेम के बंधन की,
बहन की आन को प्रतिबद्ध यदुनंदन की।
इस तरह से पर्व है यह प्रेम और प्रीत का,
सदियों से चली आ रही इस रीत का।
राखी का त्यौहार आया,
खुशियों भर-भर कर लाया।
