प्रकर्ति और मानव
प्रकर्ति और मानव
देखा जो मैंने खिलता हुआ गुड़हल
खिल उठा मेरा भी मन।
देख कर इसका पीला रंग
मन में उठी एक नई तरंग।
पूछा मैंने खुद के ही मन से
की क्यों होता है तो उदास ?
इस प्रकर्ति की तरह ही
क्यों नही है तुझे खुद पर नाज़ ?
धूप होया छाँव, दिन हो या रात
खिलता है ये बिन किसी बात।
भौरें, तितली सब पीते हैं
इनका रस,
पर नहीं छोड़ता ये अपना स्वभाव।
तेरा और इसका एक ही तो है रचियता,
दोनों में ही दिए हैं उसमें प्राण।
रहने के लिए इस धरती पर,
दोनों को ही चाहिए एक दूसरे का साथ।