परिबर्तन
परिबर्तन
सोच रहा हुँ थोड़ा बदल के देखूँ
फर्ज़ की क़ैद से निकल के देखूँ,
बोहोत सह लिया वक़्त का सितम
अब थोड़ा उसके बार से संभल के देखूँ,
उलझी हुई जीवन को सरल बनाकर देखूँ
निराशा मैं भी आशा का महल बनाकर देखूँ,
सैर करली गुमनामी की अँधेरी गली मैं बोहोत
अब थोड़ा उजाले मैं पहचान बनाकर देखूँ,
चाहत को मेरी तुमने दिल मैं बसा लिया बोहोत,
मैं अपने रोज़े मैं तुमको इबादत बनाकर देखूँ,
सीखने को मिलता हे सबक ज़िन्दगी का
मैं मतलबी लोगों के साथ कुछ पल ठहर कर देखूँ,
सुना है वक़्त भर देता है हर एक ज़ख़्म,
में भी एक आध चोट खाकर देखूँ ।