एक स्त्री!
एक स्त्री!
चुप हो जाती है वो,
समाज की बंदिशों को देख कर।
फिर भी हर जगह अपना परचम
लहराती हैं।
एक स्त्री ऐसे ही नहीं सर्वगुण
संपन्न कहलाती हैं।
भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी,
दिन भर की थकान।
घर ही उसकी ज़मीन,
घर ही उसका आसमान।
वो कहते हैं न,
अगर घर का स्तम्भ है पुरुष,
तो स्त्री बुनियाद है।
और इन दोनों के मेल मात्र
से ही घर आबाद है।
कमज़ोर न समझना उसे,
वही दुर्गा का रूप है, वही
काली का स्वरूप है।
चुप रह कर सब सहन
ज़रूर करती है,
पर हर हालात से भिड़ने
की ताकत भी रखती हैं।
कहते है वो ख़ुदा की सबसे
प्यारी रचना है,
सुन्दर है वो रूप में,
कृत्य से अन्नपूर्णा है।
वो जो हो घर में तो लक्ष्मी,
और विद्वानों में सरस्वती होती है।
वो जननी है हर कुल की,
उसी से ये संसार है।
उसकी महिमा का तो
खुद ख़ुदा भी शुक्रगुज़ार है।
वो शक्ति है, वो ही अमर्त्य
का वरदान है।
वो ही तो होती हर घर की शान है।
खुद से पहले हमेशा दूसरों का
सोचती है
एक स्त्री ऐसे ही नहीं सर्वगुण
संपन्न कहलाती है।
