प्रेम
प्रेम
उनकी आँखों में देख लेता था
पूजा के दीपक का तेज
उनके शब्दों की खिलखिलाहट
लगती थी मंदिर की घंटी सी
वो जब पास से निकल जाते
मूर्ति भगवान सी महक उठती
दो शब्द मधुर से बना देते
वातावरण आरती का
मानवीय आडम्बरों से दूर
मैं उनमें देखता रहा
अपने ईश्वर को
अब,
ना पूजा-ना आरती
केवल अनुभव करता हूँ
एक होने का
एकाकार ईश्वर से ...!