प्रेम
प्रेम
हर बार सबने कहा तुम्हारी कविताएँ,
हमेशा उदासी लिए रहती हैं।
तुम प्रेम नहीं लिखती,
आखिर क्यों
क्या तुम प्रेम महसूस नहीं करती।
मैं भी दृढ़ निश्चय करके बैठ जाती लिखने प्रेम को।
चाहती हूँ लिखना शुरू करूँ,
हर उन अनुभवों को
जहाँ मैंने प्रेम को महसूस किया।
समय दिनों वर्षों की बात क्यों करना
पलों में प्रेम को जिया।
चाहती हूँ लिखना प्रेम के सुंदरतम स्वरूप को
पवित्रतम रूप को
जिससे मुझे ताकत मिली।
खुद को सँवारने की चाहत मिली,
आत्मविश्वास मिला,
रोने के क्षणों बाद ही आँसू पोंछ मुस्कुराने की
हिम्मत मिली।
पर रुक जाती हूँ
थोड़ा ठिठक और सहम जाती हूँ।
क्योंकि प्रेम पाने का नाम नहीं,
यह व्यक्ति विशेष नहीं,
या फिर प्रेम का स्वरूप सबके लिए अलग है।
इस लिए सबसे कठिन है लगता
मुझे प्रेम के लिए लिखना,
प्रेम पर लिखना।
और लिख देती हूँ प्रेम न होने पर
दर्द बड़ा गहरा होता है।
और प्रेम स्वयं से शुरू होकर
सब तक पहुँचता है।
दर्द को जीकर ही प्रेम का महत्व पता चलता है।
इसलिए मैं दर्द को लिख देती हूँ।