प्रेम मिलन
प्रेम मिलन
तुम इस डर से बहुत बार मेरे कमरे में नहीं आते
कहीं मैं तुम्हें कुछ देर और रुकने के लिये ना कह दूँ
तुम जानते हो मुझे तुम्हारे बदन से लिपट कर
घंटों लेटे रहना पसंद है
बेमतलब की बातें करना
अपनी नई कविताएँ तुम्हें सुनाना
मेरे कमरे की सजावट को निहारना
मेरी नादानियों पर तुम्हारा मुझे डाँटना-समझाना
दूसरों की बातों पर मिल के ज़ोर-ज़ोर से हँसना
जो कभी सच ना होंगे शायद
उन सपनों के हवाई-क़िले रचना
हम कौन-कौन से देश साथ में घूमेंगे
हम मिल कर समाज को अपनी-अपनी कला से कैसे पूर्ण करेंगे
फिर तुम्हारा इशारे से मुझे चुप करवाना
और मुझे अपनी बाहों में लिए एक गहरी नींद में खो जाना
मुझे छूते हुए तुम्हारा हर बार मेरे बदन की तारीफ़ करना
तुम्हारी गरम साँसों का मेरे बदन को छूना
और मेरा हर बार ये सोचना
कि दूरी है इसलिए हम इतने नज़दीक हैं
या इतने क़रीब हैं इसलिए दूरी का एहसास होता है
तुम इस डर से बहुत बार मेरे कमरे में नहीं आते
कहीं मैं तुम्हें कुछ देर और रुकने के लिये ना कह दूँ
पर इन सारी बेमतलब की बातों को
हर बार एक नयी शक्ल देने में वक्त तो लगता है
हर बार वही प्रेम, पर हर बार सब कुछ नया सा
तुम्हारे जाते वक्त मेरे चेहरे पर जो बेचैनी होती है
तुम कितनी आसानी से उस पुकार को पढ़ लेते हो
मेरे बिना कुछ कहे ही
तुम इस डर से बहुत बार मेरे कमरे में नहीं आते
कहीं मैं तुम्हें कुछ देर और रुकने के लिये ना कह दूँ
पर मैं जानती हूँ जाओगे नहीं तो लौटोगे कैसे
एक बार और मिलने के बाद भी
एक बार और मिलने की इच्छा ही
तो हमें जीवित रखती है!

