प्रेम की मैं प्यासी पर
प्रेम की मैं प्यासी पर
नदी के
उस पार
ले जाने के
लिए
एक कश्ती
पानी की सतह पर
तैरती हुई
एक जलतरंग सी
बजती हुई
एक शीशे की पारदर्शी मछली सी
उछलती हुई
आई
मेरे पास
मेरे द्वार
मेरे संसार
मैं पड़ गई
दुविधा में
इसके प्रेम भरे
प्रस्ताव
इसके यत्न
इसकी गुहार को
आखिर कैसे ठुकराऊं
इसे इसकी राह पर अकेला
वापिस कैसे लौटाऊं
बिना माझी
बिना पतवार की
नाव में
कैसे सवार हो जाऊं
इसके साथ लहरों के पार
चली जाऊं तो भी
मैं क्या पाऊं
इसको मेरा साथ चाहिए तो
यहीं मेरे पास क्यों नहीं
ठहर जाती
एक मुश्किल राह पर
वापिस लौटकर
खतरा मोल लेकर
अपनी जान को भी
मझधार में क्यों
डुबोती
क्यों नहीं समझती
यह मेरे खामोश मन की
बोली
यह कृष्ण
मैं राधा
प्रेम की मैं
प्यासी पर
हूं तो
एक सागर की गहराई सी ही
प्रेम के संसार से अंजान
एक मासूम
एक नादान
एक कन्या
शिव शंकर सी
पवित्र
निष्ठावान और
भोली।