पर मानी न मैंने भी हार
पर मानी न मैंने भी हार
हर दिवस सहा स्वजनी प्रहार
पर मानी न मैंने भी हार
न कभी झुका न कभी रुका हूँ
पथरीले से नहीं डरा हूँ
दूना प्रयास किया हर बार
पर मानी न मैंने भी हार
मस्तिष्क पटल पर लक्ष्य एक
इसके दूजा था नहीं शेष
चल रहे अनवरत कई युद्ध
जिनके चलते मन हुआ क्रुद्ध
जीवन का भूला नहीं सार
पर मानी न मैंने भी हार
जीतों की आपाधापी थी
वो सर्द रात भी स्वापी थी
हर ओर लगी थी आग नयी
कितनों की जाने जान गयी
चहुँ दिशि हो रहा नरसंहार
पर मानी न मैंने भी हार
ज्यों ज्यों चढ़ा लक्ष्य का ज़ीना
कठनाई ने ताना सीना
दुर्बलता करती, नित झीना
क्या इसको कहते हैं जीना
अंतर्मन में हुई तक़रार
पर मानी न मैंने भी हार
बल में बदली फिर कमजोरी
करता श्रम मैं चोरी चोरी
सुख शय्या को मैने छोड़ा
खुद को कितनी बार मरोड़ा
रखे सदा ही सार्थक विचार
पर मानी न मैंने भी हार
जीवन के दो रहे छोर है
एक शाम अरु एक भोर है
सुख दुख कर्मों के अनुगामी
नहीं भाग्य की इसमें ख़ामी
हुई कुशल रणनीति तैयार
पर मानी न मैंने भी हार