पिता की परछाई
पिता की परछाई
मुझ में तेरी परछाई क्यूं है,
सोच मेरी इतरायी क्यूं है,
लबों से निकले, हर वो अक्षर,
तेरे हाथों से पकड़ी लिखाई क्यूं है,
मैं सोचता हूं, जो भी अक्सर,
तेरी सिखाई कहानी क्यूं है,
मुझ में तेरी परछाई क्यूं है,
सोच मेरी इतराई क्यूं है,
क्यूं अक्सर जीन बातों पर, मैं तुमसे लड़ता था,
आज उसी गहराई में, खुद को दफना पाता क्यूं हूं,
जो सोच मेरी, उमड़ आयी है आज,
कभी तुमने ही तो पढ़ाई थी,
अपनी धड़कन में समा कर, जो
कभी सर्दियों में मुझे गर्मी पहुंचाई थी,
यूंही अक्सर, हम भूल जाते हैं,
यूं थपड़ों की गूंज के पीछे, छिपे दर्द के फाकों को,
वो प्यार भरे एहसासों को,
अपना हक़ समझते, उनसे बहेस में जितने को,
आज मुझे अहसास हुआ, जब मेरी बारी आयी है,
अपने बच्चे पे हाथ उठा जब, सीने में अपने जलन जो पाई है।
मुझ में तेरी परछाई क्यूं है, सोच मेरी इतरायी क्यूं है।।
