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पहला प्यार

पहला प्यार

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ज़िंदगी के कुछ लम्हों,

पर धूल-सी जमी थी,

के हवा के एक झोंके ने,

उड़ाया जब उसे तो पाया।


दिल में बेकरारी और,

आँखों में नमी थी,

ज़िंदगी के कुछ लम्हों पर,

धूल-सी जमी थी।


वो पल जब वो,

हमसे मिली थी,

ये समा ठहर-सा गया था,

और धड़कन भी थमी थी,

ज़िंदगी के कुछ लम्हों पर,

धूल-सी जमी थी।


पलकों के चिल्मन,

को छूते हुए,

आँखों से गिरी बूँद जैसे।


उस नाज़नीन के,

गालों को चूमी हो,

ऐसी पाक और,

मजीद मेरी आशिक़ी थी,

ज़िंदगी के कुछ लम्हों पर,

धूल-सी जमी थी।


और जुदाई पे,

आलम तो ये था,

के याद में,

उनकी आँखों से।


बह रहे आँसुओं,

की पड़ी कमी थी,

ज़िंदगी के कुछ लम्हों,

पर धूल-सी जमी थी।


हाँ, वो कोई फूल की,

पंखुड़ी से कम,

कमसिन नहीं थी,

ज़िंदगी के कुछ लम्हों,

पर धूल-सी जमी थी।


ये मंज़र शायद,

तसव्वुर से मेरे मिटेंगे नहीं,

पर न रंझ ज़िंदगी से,

कोई शिकायत नहीं।


लोग पूछते हैं मुझसे,

के इस कदर बेकरारी,

के आलम में,

मैं चैन की नींद कैसे सोता हूँ।


उन्हें क्या पता,

मैं नींद में भी उनके,

सपने पिरोहता हूँ,

ज़िंदगी के कुछ लम्हों,

पर धूल सी जमी थी।


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