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Utkarsh Arora

Others Romance

5.0  

Utkarsh Arora

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इंतज़ार

इंतज़ार

1 min
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जाने क्यूँ, आज हर रोज़ से कुछ पहले ही सूरज में चाँद पिघला ?

हवा में उड़ता वो धुन्ध का बादल भी फूलों पे ओस बन के बिखरा,

पर जब शहर की हर रह, हर रास्ता, मेरी दहलीज़ की ओर मुड़ा,

तब मुझे गुमाँ हुआ के ये सब तो तेरे घर आने का पैगाम निकला

जाने क्यूँ, आज हर रोज़ से कुछ पहले ही सूरज में चाँद पिघला ?


घर आ रही है जो तू तो आँगन चमक रहा है,

रसोई में इलायची और ज़ीरा महक रहा है,

बिस्तर की चादर की सिलवटें भी उतर गईं,

घर का कोना-कोना मानो चहक रहा है,


मदहोश है हवा भी आज, लड़क-लड़क के चल रही है,

शायद इसने तेरी आँखों की मह का जाम निघला,

जाने क्यूँ, आज हर रोज़ से कुछ पहले ही सूरज में चाँद पिघला?


जब पिछली बार देखा था तुझे,

तेरे काजल से काली तेरी पलकें थीं,

हाथों में कंगन पहने थे,

बेबात ही उलझी जुल्फें थीं,

जाते-जाते तेरे लबों पे एक बात की बूँदें उभरी थीं,


पर तू उसे कह न सकी, शायद वो अश्कों-सी भारी थीं,

या फिर वो ख्वाबों-सी हलकी थीं,

तब से उन लव्ज़ो की बारिश में भीगने को ये साँसें तरस रही हैं,

मेरी दुआएं क़बूल होंगी गर उन लव्ज़ो में कहीं,


तेरे नाम से जुड़ा मेरा नाम निकला,

जाने क्यूँ, आज हर रोज़ से कुछ पहले ही सूरज में चाँद पिघला ?


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