पहचान
पहचान
कोलाहल सा रहता है जहन में,
खामियों का, शिकायतों का,
पल भर की सुलह ही सही
पर जिस्म से रूह मिले तो सही।
गहरी होने लगी हैं सलवटें,
सवालों की सतह पे अब,
कागजी ही सही,
पर नजरिये से नियत मिले तो सही।
सिमटने लगा है किरदार,
काबिलीयत के रंगमंच पे अब,
पैमाने के लिए ही सही,
पर तमाशा-गाह से रक्कास मिले तो सही।
चुभने लगी है अब बेमाने से,
इन ढलते ख्वाबों की गर्मी,
गुमनाम ही सही,
इस शहर में अब कोई पहचान मिले तो सही।
