मेरे हिस्से की धूप
मेरे हिस्से की धूप
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सुबह की धूप सवालों का गुच्छा लिए
खिड़की से दबे पाँव हो के
हर रोज की तरह
ख़ामोशी से एक कोने में सिमट जाती है
बातें नहीं होती पर शिकायतें बहुत होती हैं
यूँ नहीं कि कोशिशें नहीं की, सुलझाने की
खामियों का हिसाब भी रखा था
ख्याल आया, जो सवाल बाकी हैं पूछ लूँ
पर उलझ जाता हूँ,
लफ़्ज़ों और उनके मायनों में
सवाल, उलझन आज भी वही है
आधे अधूरे ज़िक्र सी, सुबह की धूप
हर रोज़ की तरह,
दस्तक आज भी देती तो है
पर अब ये खिड़कियाँ नहीं खुलती शायद।
