फ़ासले
फ़ासले
मैं और तुम
किससे फ़ासले कर रहे
अपने आप से
या फिर किसी और से।
जीने के लिए तो
मुट्ठीभर अनाज ही चाहिए।
बाकी तो सब आडम्बर ही है और
हम इन आडम्बरों में धसते जा रहे।
फ़ासले बढ़ाते जा रहे।
एक मुस्कान
हजारों फूल खिलाती है
पर फिर भी हम मुस्कुराते नहीं
क्योंकि कभी नाक आड़े आती है
और कभी अहम।
यह अहम ही तो
विश्वयुद्ध कराता है।
यह नाक की ही तो
रावण का वध कराती है
यह नाक और अहम
सदा लोगों को उकसाते हैं
और धरा पर राज का लालच दे
प्रजा की जान गवाते हैं
और फ़ासले बढ़ते ही जाते हैं।
जब प्राण तन से जाते हैं ,
गुण-अवगुण सब यहीं रह जाते हैं।
गुण गांधी के गुण गाते हैं
और अवगुण हिटलर की थूँ-थूँ करते हैं।
बस तुम्हारे ये कर्म ही यहाँ रह जाते हैं।
तुम तो मिट्टी में मिल जाते हो पर
दुनिया असमंजस स्थित में ही रह जाती है
और फ़ासले बढ़ते ही जाते हैं।
पुतिन फिर भी युद्ध कर रहे
शायद मृत्यु पर विजय पा चुके
इसलिए यूक्रेन पर वार कर रहे।
पर फासले युद्ध से नहीं मिटते
बल्कि युद्ध दिलों में बस जाते हैं
और दिल जब कहराते हैं तो
द्रौपदी बन महभारत का कारण बन जाते हैं
और फ़ासले बढ़ते ही जाते हैं।
प्रेम की नींव पर बसे नगर
राम की अयोध्या बन जाते हैं
और जब श्याम धुन सुनाते हैं
तो वृंदावन बस जाते हैं।
घर तो बस माँ की ममता से ही बसते हैं
बच्चे भूखे भी कुन्ती की गोद में सो जाते हैं
और दुर्योधन खीर खाकर भी झगड़ते हैं
ये बातें आज तक हम समझ न पाए
और फ़ासले बढ़ते ही जाते है।
कभी हिंदू कभी मुस्लिम बन लड़ते हैं
कभी आपस में यूँ ही लड़ पड़ते हैं।
फिर कहते हैं _
राम राज्य चाहिए
शांतिपूर्ण देश चाहिए।
पर स्वयं करते कुछ नहीं
क्योंकि आज तक
चाहिए और करने की बीच की दूरी
पार ही नहीं कर पाए हैं।
बस ! बहुत हुआ
अब इंसान बन
सब फ़ासले मिटा डालते हैं
और एक प्रगतिशील-प्रेममय
नई दुनिया बसाते हैं।