फागुन
फागुन
खिल उठा है ये मानव जीवन ,
फागुन की बयार से ,
फगुआ खेलन चले है गोपी,
रंगो के बाजार में ,
खिलखिलाती खिली हैं गोपियां,
बृज के गलियारी में ,
फूलों से चुन चुन कर रंग सुगंधी ,
भर रखा है पिचकारी में,
भंग के संग खा के गुझिया ,
गोपी चले ढूंढने संगनिया,
आज बचेगा ना कोई उनके ,
रंगो की पिचकारी से ।