पहाड़ की नारी
पहाड़ की नारी
जन्म से देवी जन्मी
कर्मों से दुःखयारी हूँ
मैं पहाड़ की नारी हूँ
घास लकड़ी गोबर का बोझ
मैं सर उठाती हर रोज
यूँ तो घर की लक्ष्मी माने
पर दहेजप्रथा और
लिंग भेद से जूझती बेचारी हूँ
मैं पहाड़ की नारी हूँ
सर्दी गर्मी और बरसात
चलते कदम , न खकते हाथ
रिश्तों की पगडंडी बूढ़ा बना दे
फिर भी होठों पे मुस्कान साथ
उम्मीदों के सागर में डुबकी लगाती
मैं खुशियों की सवारी हूँ
मैं पहाड़ की नारी हूँ
आँखों में आंसू जरूर
पर कंधे कमजोर नहीं
मेरी आँखों में भी सपने
पर उन सपनों की भोर नहीं
पीछे कदमों को आगे बढ़ाती
मैं अब की बारी हूँ
मैं पहाड़ की नारी हूँ....