ऑफिस की खिड़की
ऑफिस की खिड़की
जैसे देखना हो लाज़िम,
इस तरह देखता हूँ,
मैं हर रोज़ रुक कर,
कुछ देर ठहर कर, .
ऑफिस की खिड़की से,
होने वाली सुबह देखता हूँ।
ऐसा करने को,
कोई ख़ास मकसद नहीं होता है ,
बस ये है, के मेरा कुछ,
बातों पर यक़ीं होता है।
यकीं ये, के कैसे,
जिन पलों का,
बीतना हो मुश्किल,
वो पल सारे बीत जाते हैं।
के कैसे हर उस,
पहली किरन के साथ,
अंधेरों को उजाले,
जीत जाते हैं।
के कैसे खुले आसमाँ,
में बेख़ौफ़ हो कर,
हर रोज़ उतनी ही शिद्दत से,
उड़ जाना भी है ज़रूरी।
और कैसे इस,
बात का इल्म रहे,
के अँधेरा लौटेगा,
तो घर बनाना भी है ज़रूरी।
के कैसे लम्हा दर लम्हा,
रौशन उम्मीद होनी चाहिए
बादलों के बीच से भी रास्ता,
बनाने की ज़िद होनी चाहिए।
मैं समंदर की,
लहरों की तरह,
मुड़-मुड़ कर,
अपनी सतह देखता हूँ।
मैं हर रोज़ फिर,
उसी जगह लौट आने की,
कुछ नया कर जाने की,
बेवजह क्यों न लगे,
पर वजह देखता हूँ।
और बस यही जुस्तजू है,
खुद से होना रूबरू है,
इसीलिए तो हर रोज़ रुककर,
कुछ देर ठहर कर,
ऑफिस की खिड़की से,
होनेवाली सुबह देखता हूँ।
