ओ कहानी याद आती हैं।
ओ कहानी याद आती हैं।
जो मिलते थे चुपके से भरी दुपहरी में,
मै सूर्य के प्रकाश, तुम शीतल पुरवाई बनकर।
कभी हाथ में छतरी होती थी, कभी वैसे ही चले आते थे,
तुम भी बिना श्रृंगार में मिलने आती वहां पर।
मैं तुमसे मिलकर बहुत ख़ुश होता था।
अपनी सारी बातें तुमसे बयां करता था।
तुम भी क्या कम थी, कुछ भी खाती मुझे खिलाती।
अगर मुझे कहीं नींद भी आती राहों में, तुम मुझे पलकों पर सुलाती।
हम और तुम साथ रहते थे, गुल के बाग में,
अपनी बातें इज़हार करते थे, एक दूसरे से नजर मिलाकर।
दिन गुजरता था यूं ही, तुमसे बाते कर के घासों पर लेट कर।
उस दिन का मनोरम दृश्य था, ओस की बूंदें गिरती थी होठों पर।