नज़म
नज़म
खुदाया यूँ ना रूठा किजिए हमसे गुलअज़ार- शरीक़े -ज़िन्दगी , हमें मनाना नहीं आता ।
इल्म नहीं है हमें इश्क जताने का, जाहिदे-नाफहम (नासमझ बैरागी ) हैं , लज्ज़ते- इश्क लेना नहीं आता ।
शीशा-ए-मय की तरह नाज़ुक हो तुम, दस्ते शौक इसलिए नहीं रखते हम , कहीं तुम पर ना कोई जब्र ना हो जाए ।
ग़ुल-ओ-ग़ुलशन को तकता हो जैसे कोई, तुम्हें देख कर तबस्सुम छुपाना नहीं आता ।
एहदे-शबाब है तुम पे सहवा ( शराब ) सा , ये भी तो बताना नहीं आता ।
बीमारे- ग़म है, फिर भी साज़े -उलफ़त बजाना नहीं आता ।
ना रूठा किजिए यूँ हमसे , के हमें मनाना नहीं आता।

