नया दल
नया दल
चुनाव, चुनाव, चुनाव का
मचा सब ओर शोर है,
रैलियों की भरमार
भाषण का जोर है,
दल-बदल के समीकरण
बदल रहे जोरों से,
स्वार्थ संलग्नता पहुँची
विश्वास के घेरों में।
जब सालों साल रहकर
साथ पल में छूट जाए,
ऐसे संबंधों पर ये भरोसा जताते हैं
बात कुर्सी की हो तो
गधे भी बाप नज़र आते हैं,
क्या अनायास दल बदलाव
देश सेवा का भाव है
या मालिक बदलते रहना
सेवकों का स्वभाव है।
हर कोई वादों से सेवा को बेताब हैं
पर कुर्सी ना मिले तो छलक जाते जज़्बात हैं,
कैसी सेवा कैसा त्याग,
क्यों जनता को फुसलाते हो;
आप नेता हो अपने स्वार्थ से
नया दल बनाते हो,
नया दल बनाते हो।