नवसृजन- बारिश
नवसृजन- बारिश
ये उलझने , ये बूंदे बारिश की,
कुछ भिगोती मन को ,
यादों में जाकर डूबकी लगाती. ..
कागज की कश्ती सा मन,
गोता लगाता हुआ चला संग लहर के,
जाने पहुंचे कहां, जाने कहां जाए ठहर,
देखो जरा तुम भी वो शब -ए- सहर,
जिसे भूल आए कभी उस गांव के छोर से...
चमक-दमक के बीच जहां न मिले सुकून जरा,
उलझने को दूर करने चल ,
वही कागज कि कश्ती में गोता लगाने,
फिर सुहानी सी बचपन को जीने ,
यें बूंदें बारिश की फिर कहती है-
नवसृजन का आधार मुझसे ,
चल फिर श्री करने.....