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निश्छल बचपन

निश्छल बचपन

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आज चलो यादों की पोटलियाँ खोलते हैं

फिर से उसी बचपन की गिरफ़्त में चलते हैं

जब मासूमियत से भरे रिश्ते होते थे दोस्ती के

छल कपट से दूर, सरल, सीधे, जुड़ते थे दिल से।


जब खिलौनों में बसा होता था इक आशियाना

वो गुड़ियों की शादी, और गुड्डे का बारात लाना

खिलखिलाहट, हँसी, ठिठोली वो रूठना मनाना

अक्सर जाड़ों की नर्म दोपहरी में पतंगें उड़ाना।


बारिश की बूँदों को काँच की बोतलों में भरना

पानी भरे गड्ढों में काग़ज़ की नावें चलाना

थोड़ी सी ब

ारिश हो तो “रेनी डे “की छुट्टी मनाना

गर्मी की रातों में छत पर लेट कर तारे गिनना।


किताबों में पढ़े तारामंडलों को आसमां में ढूँढना

स्कूल की कक्षा में मॉनीटर बन इतराना

माँ का आँचल में बस यूँ ही छुप जाना

पापा के घर में घुसते ही पढ़ने बैठ जाना।


दोस्तों के संग मटरगश्ती के मौक़े तलाशना

बचपन की अनूठी यादों में है अलग सा नशा

इस नशे से जितना मुश्किल है बाहर आना

उतना ही आसाँ है इस मासूम नशे में

बार बार डूब जाना !




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