हुंकार
हुंकार
उठो नारी ! अब भरो हुंकार !
नहीं काम आयेगी अब चीत्कार !
बहुत हुआ कोमलांगी बन,
अंतहीन पीड़ा और ज़ुल्म सहना !
बहुत हुआ वामांगी बन,
पुरुष की परछाईं बनना !
अब वक़्त है कि भूल जाओ
सहनशीलता है तुम्हारा गहना !
समय है चंडी बन सबक़ सिखाने का
अधिकार और सम्मान दोबारा पाने का
हैवानियत से डरना तुम्हारा काम नहीं
घुट घुट कर जीना अब तुम्हें स्वीकार नहीं !
पुरुषों की कुत्सित मानसिकता को हराना होगा
समाज की तिरछी नज़रों को झुकाना होगा !
तुम नारी हो, सबला हो, स्वयंसिद्धा हो...
जो तुम उठ खड़ी हुईं तो अवश्य ही
तुम्हारे क़दमों में सारा ज़माना होगा !