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ख़तों के सारे शब्द

ख़तों के सारे शब्द

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मेरे घर की दुछत्ती पर,

छोटी सी संदूकची में,

रखे थे कुछ पीले से पड़ चुके,

मुड़े तुड़े से ख़त

जैसे हों ख़्वाब कई,

पुरानी सी बूढ़ी आँखों में बंद !


पहले ख़त का अनोखा सा मज़मून था,

दादा जी ने बड़े दुलार से लिखा था

“ मेरी बिटिया, 

तेरे बिन सूनी है दालान की खटिया,

बहुत याद आतीं हैं मुझे तेरी बतियाँ

पराये घर में कैसी है तू मेरी गुड़िया ? “


दूसरे ख़त में दादी ने लाड़ उँडेला था,

“मेरी प्यारी लाडो , वापस घर कब आयेगी ?

चूने, कत्थे, सुपारी सरौता संग पानदान सजायेगी

अख़बार से कहानियाँ कब पढ़कर सुनायेगी ?

बैठक में सूनी पड़ी है तेरी मचिया

ससुराल में कैसी है तू मेरी गुड़िया ? “


तीसरा ख़त तो ऊपर से ही समझ आया था,

पापा की सुन्दर लेखनी ने जिसे सजाया था

“ तेरे जाने के बाद मैं चाँपाकल चलाता हूँ

दो चार सुराही भरने में ही थक जाता हूँ

कब लेने आऊँ मेरी बिटिया ?

ससुराल में कैसी है मेरी गुड़िया ?“


अगला ख़त मैंने काँपते हाथों से खोला था

माँ का मखमली स्पर्श, ख़त में सिमट आया था,

“ तू क्यों परायी हो गई मेरी बिटिया?

दूसरे आँगन में फुदकती मेरी चिड़िया

अक्सर देगची से दूध उफ़न, गिर जाता है


मेरी भावनाओं का उफ़ान कहाँ थम पाता है ?

अपनी परछाईं बिन अधूरी सी हो गई हूँ मैं

तुझे पाहुन को सौंप कुछ निश्चिन्त हो गई हूँ मैं,

तुझे देखने को तरस गईं हैं मेरी अँखियाँ

कब अपने घर आयेगी मेरी बिटिया ?


ख़तों ने खोल दी यादों की पिटारी है

आँसुओं से भीगी मेरी धोती की किनारी है,

अब ये किरदार केवल यादों में ही बसते हैं

जिनकी एक झलक को मेरे नैन तरसते हैं 


जानती हूँ मैं भी, अब यह नहीं है मुमकिन,

इसलिये इन ख़तों के सारे शब्द ही, 

मेरे दिल की कोठरी के छोटे से आले से,

भीतर आ, जुगनुओं की तरह चमकते हैं !


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