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Anshu Shri Saxena

Abstract

2.3  

Anshu Shri Saxena

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कान्हा की बाँसुरी

कान्हा की बाँसुरी

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323


ऐ बाँसुरी, 

तुम तो कान्हा की सहचरी हो

उनके होंठों पर सदा ही सजी हो !

क्या तुम्हारी स्वर लहरियों में

सदा गूँजेगा राधिका का ही नाम ? या,

कभी मैं भी सुन पाऊँगी अपना नाम ?


मैं अर्थात रुक्मणी

कृष्ण की अर्धांगिनी, द्वारका की पटरानी,

धन ऐश्वर्य से युक्त, रानियों की रानी !

मुझे राधिका की तरह नहीं तुमसे कोई डाह

काश, तुम समझ सकतीं मेरे मन की थाह !


पत्नी होकर प्रेयसी के हाथों क्यों हारी हूँ ?

पति के प्रेम को तरसती अभागी नारी हूँ !

क्या तुम बता सकती हो ऐसा कोई उपाय ?

राधिका को भूल कान्हा मुझे मन में बसायें !


रुक्मिणी की व्यथा सुन बाँसुरी, हौले से मुस्कुराई, 

कान्हा से द्वारिकाधीश बनने की ज़िम्मेदारियाँ गिनाईं

बोली बाँसुरी, सुनो रुक्मणी

कान्हा के साथ का मेरा भी क़िस्सा पुराना है


मुरलीधर के होंठों से टूटा मेरा भी नाता है !

अब हवाओं में मेरी स्वर लहरियाँ न बिखरती हैं

निर्मोही कान्हा से दूरी मुझे भी उतनी ही अखरती है !


द्वारिकाधिपति बन, द्वारका आ बसे तो कान्हा

पर अपनी आत्मा, वृंदावन में छोड़ आये कान्हा !

जहाँ कुंज गलियों में राधिका संग रचाते थे रास

यमुना तीरे गोपियों संग करते थे हास परिहास !


प्रेमी कान्हा ने अब राजा बनने की ठानी है,

प्रेयसी राधिका से तुलना करना बेमानी है

तुम्हारी और मेरी दोनों की गति है एक जैसी

जैसी मन में बसा लो, प्रभु की मूरत हो वैसी !


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