नेह का अकल्पित अनुमान
नेह का अकल्पित अनुमान
तुम्हें हरि कर, मैं दुलारी- वृषभान होना चाहती हूं ।
युगों तक पूजे जहां, प्रेम का वो मान होना चाहती हूं।
सत्य शपथ ले तुम्हारा, उजाले भी तुम्हीं से उजास मांगे
इन दिव्य चक्षुओं का, मैं लक्ष्य संधान होना चाहती हूं ।
तुम्हें पा के न पायी रुक्मिणी न जीत पाए सत्यभामा,
राधा सी, पावन हृदय का मैं ही अरमान होना चाहती हूं।
हर उलझनें तेरी खत्म हो जाए आकर जहां पर,
विकट परिस्थितियों का मैं समाधान होना चाहती हूं।
तेरे अधर की बांसुरी, न मैं पांव की उपाहन रहूंगी
उर के वनमाल सी, श्रद्धा -सम्मान होना चाहती हूं।
सुधा रस ले कर शरद के चंद्र सा, तू उदित हो जहां
विस्तृत फलक वो मैं नीला आसमान होना चाहती हूं।
जिन्हें पाकर धन्य हुए हो नंद और माता यशोदा,
उस देव का, मैं ही प्रेम आख्यान होना चाहती हूं।
कभी गीता रचे, कभी बने वो पार्थ का भी सारथी,
रखे ले लाज पांचाली का, मैं अभिमान होना चाहती हूं।
मन -मंदिर में करूं प्रतिष्ठापित, हर भाव है अर्पण तुम्हें
दीप हो उदीप्त, नेह का अकल्पित अनुमान होना चाहती हूं।